Current Date: 21 Nov, 2024

श्री सोमनाथ मंदिर की कथा और इतिहास (Shree Somnath Mandir Ki Katha Aur Itihaas)

- The Lekh


श्री सोमनाथ मंदिर की कथा और इतिहास

Somnath Jyotirlinga Temple History, Photo, Location | Shri Mathura Ji

गुजरात प्रांत के काठियावाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे सोमनाथ नामक विश्वप्रसिद्ध मंदिर में यह ज्योतिर्लिंग स्थापित है। पहले यह क्षेत्र प्रभासक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। यहीं भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जरा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर अपनी लीला का संवरण किया था। यहां के ज्योतिर्लिंग की कथा का पुराणों में इस प्रकार से वर्णन है-

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दक्ष प्रजापति की सत्ताइस कन्याएं थीं। उन सभी का विवाह चंद्रदेव के साथ हुआ था। किंतु चंद्रमा का समस्त अनुराग व प्रेम उनमें से केवल रोहिणी के प्रति ही रहता था। उनके इस कृत्य से दक्ष प्रजापति की अन्य कन्याएं बहुत अप्रसन्न रहती थीं। उन्होंने अपनी यह व्यथा-कथा अपने पिता को सुनाई। दक्ष प्रजापति ने इसके लिए चंद्रदेव को अनेक प्रकार से समझाया। 
 
किंतु रोहिणी के वशीभूत उनके हृदय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंततः दक्ष ने कुद्ध होकर उन्हें 'क्षयग्रस्त' हो जाने का शाप दे दिया। इस शाप के कारण चंद्रदेव तत्काल क्षयग्रस्त हो गए। उनके क्षयग्रस्त होते ही पृथ्वी पर सुधा-शीतलता वर्षण का उनका सारा कार्य रूक गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। चंद्रमा भी बहुत दुखी और चिंतित थे। 

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उनकी प्रार्थना सुनकर इंद्रादि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषिगण उनके उद्धार के लिए पितामह ब्रह्माजी के पास गए। सारी बातों को सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- 'चंद्रमा अपने शाप-विमोचन के लिए अन्य देवों के साथ पवित्र प्रभासक्षेत्र में जाकर मृत्युंजय भगवान्‌ शिव की आराधना करें। उनकी कृपा से अवश्य ही इनका शाप नष्ट हो जाएगा और ये रोगमक्त हो जाएंगे।
 
उनके कथनानुसार चंद्रदेव ने मृत्युंजय भगवान्‌ की आराधना का सारा कार्य पूरा किया। उन्होंने घोर तपस्या करते हुए दस करोड़ बार मृत्युंजय मंत्र का जप किया। इससे प्रसन्न होकर मृत्युंजय-भगवान शिव ने उन्हें अमरत्व का वर प्रदान किया। उन्होंने कहा- 'चंद्रदेव! तुम शोक न करो। मेरे वर से तुम्हारा शाप-मोचन तो होगा ही, साथ ही साथ प्रजापति दक्ष के वचनों की रक्षा भी हो जाएगी। 

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कृष्णपक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होगी, किंतु पुनः शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से तुम्हारी एक-एक कला बढ़ जाया करेगी। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम्हें पूर्ण चंद्रत्व प्राप्त होता रहेगा।' चंद्रमा को मिलने वाले इस वरदान से सारे लोकों के प्राणी प्रसन्न हो उठे। सुधाकर चन्द्रदेव पुनः दसों दिशाओं में सुधा-वर्षण का कार्य पूर्ववत्‌ करने लगे।
 
शाप मुक्त होकर चंद्रदेव ने अन्य देवताओं के साथ मिलकर मृत्युंजय भगवान्‌ से प्रार्थना की कि आप माता पार्वतीजी के साथ सदा के लिए प्राणों के उद्धारार्थ यहाँ निवास करें। भगवान्‌ शिव उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके ज्योतर्लिंग के रूप में माता पार्वतीजी के साथ तभी से यहाँ रहने लगे।

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पावन प्रभासक्षेत्र में स्थित इस सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की महिमा महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा स्कन्दपुराणादि में विस्तार से बताई गई है। चंद्रमा का एक नाम सोम भी है, उन्होंने भगवान्‌ शिव को ही अपना नाथ-स्वामी मानकर यहाँ तपस्या की थी। 
 
अतः इस ज्योतिर्लिंग को सोमनाथ कहा जाता है इसके दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप और दुष्कृत्यु विनष्ट हो जाते हैं। वे भगवान्‌ शिव और माता पार्वती की अक्षय कृपा का पात्र बन जाते हैं। मोक्ष का मार्ग उनके लिए सहज ही सुलभ हो जाता है। उनके लौकिक-पारलौकिक सारे कृत्य स्वयमेव सफल हो जाते हैं।

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भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में अरब सागर के तट पर स्थित आदि ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ महादेव मंदिर की छटा ही निराली है। यह तीर्थस्थान देश के प्राचीनतम तीर्थस्थानों में से एक है और इसका उल्लेख स्कंदपुराणम, श्रीमद्‍भागवत गीता, शिवपुराणम आदि प्राचीन ग्रंथों में भी है। वहीं ऋग्वेद में भी सोमेश्वर महादेव की महिमा का उल्लेख है। 
 
यह लिंग शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार आक्रमणकारियों ने इस मंदिर पर 6 बार आक्रमण किया। इसके बाद भी इस मंदिर का वर्तमान अस्तित्व इसके पुनर्निर्माण के प्रयास और सांप्रदायिक सद्‍भावना का ही परिचायक है। सातवीं बार यह मंदिर कैलाश महामेरु प्रसाद शैली में बनाया गया है। इसके निर्माण कार्य से सरदार वल्लभभाई पटेल भी जुड़े रह चुके हैं। 

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यह मंदिर गर्भगृह, सभामंडप और नृत्यमंडप- तीन प्रमुख भागों में विभाजित है। इसका 150 फुट ऊंचा शिखर है। इसके शिखर पर स्थित कलश का भार दस टन है और इसकी ध्वजा 27 फुट ऊंची है। इसके अबाधित समुद्री मार्ग- त्रिष्टांभ के विषय में ऐसा माना जाता है कि यह समुद्री मार्ग परोक्ष रूप से दक्षिणी ध्रुव में समाप्त होता है। यह हमारे प्राचीन ज्ञान व सूझबूझ का अद्‍भुत साक्ष्य माना जाता है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण महारानी अहिल्याबाई ने करवाया था। 
 
धार्मिक महत्व- पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार सोम नाम चंद्र का है, जो दक्ष के दामाद थे। एक बार उन्होंने दक्ष की आज्ञा की अवहेलना की, जिससे कुपित होकर दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि उनका प्रकाश दिन-प्रतिदिन धूमिल होता जाएगा। जब अन्य देवताओं ने दक्ष से उनका श्राप वापस लेने की बात कही तो उन्होंने कहा कि सरस्वती के मुहाने पर समुद्र में स्नान करने से श्राप के प्रकोप को रोका जा सकता है। सोम ने सरस्वती के मुहाने पर स्थित अरब सागर में स्नान करके भगवान शिव की आराधना की। प्रभु शिव यहां पर अवतरित हुए और उनका उद्धार किया व सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

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कैसे पहुंचें? 
वायु मार्ग- सोमनाथ से 55 किलोमीटर स्थित केशोड नामक स्थान से सीधे मुंबई के लिए वायुसेवा है। केशोड और सोमनाथ के बीच बस व टैक्सी सेवा भी है। 
 
रेल मार्ग- सोमनाथ के सबसे समीप वेरावल रेलवे स्टेशन है, जो वहां से मात्र सात किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यहाँ से अहमदाबाद व गुजरात के अन्य स्थानों का सीधा संपर्क है।

सड़क परिवहन- सोमनाथ वेरावल से 7 किलोमीटर, मुंबई 889 किलोमीटर, अहमदाबाद 400 किलोमीटर, भावनगर 266 किलोमीटर, जूनागढ़ 85 और पोरबंदर से 122 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। पूरे राज्य में इस स्थान के लिए बस सेवा उपलब्ध है। 
 
विश्रामशाला- इस स्थान पर तीर्थयात्रियों के लिए गेस्ट हाउस, विश्रामशाला व धर्मशाला की व्यवस्था है। साधारण व किफायती सेवाएं उपलब्ध हैं। वेरावल में भी रुकने की व्यवस्था है।

Shree Somnath Mandir Ki Katha Aur Itihaas

This Jyotirlinga is established in the world-famous temple named Somnath on the seashore in Kathiawar region of Gujarat province. Earlier this area was known as Prabhasakshetra. It was here that Lord Krishna performed his pastimes by making the arrow of a hunter named Jara his instrument. The story of the Jyotirling here is described in the Puranas in this way-

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Daksh Prajapati had twenty-seven daughters. All of them were married to Chandradev. But all the affection and love of the moon remained only towards Rohini among them. The other daughters of Daksh Prajapati were very unhappy with this act of theirs. He told his sad story to his father. Daksh Prajapati explained this to Chandradev in many ways.
 
But this had no effect on his heart which was under the spell of Rohini. Ultimately, Daksha got angry and cursed him to become 'decay'. Due to this curse, Chandradev immediately became decayed. As soon as he got decayed, all his work of raining Sudha-coolness on the earth stopped. There was commotion all around. Moon was also very sad and worried.

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Hearing his prayer, Indradi Devta and Vasishtha etc. sages went to Pitamah Brahmaji for his salvation. After listening to all the things, Brahmaji said- 'Moon should worship Mrityunjaya Lord Shiva by going to the holy Prabhasakshetra along with other gods to get rid of his curse. By his grace, his curse will definitely be destroyed and he will be disease free.
 
According to his statement, Chandradev completed all the work of worshiping Lord Mrityunjaya. He chanted the Mrityunjaya Mantra ten crore times while performing severe penance. Pleased with this, Mrityunjay-Lord Shiva granted him the boon of immortality. He said - ' Chandradev! Don't you mourn Your curse will be redeemed by my groom, as well as the words of Prajapati Daksh will also be protected.

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Every day your art will decrease in Krishna Paksha, but again in Shukla Paksha, each and every art of yours will increase in the same order. In this way, every full moon, you will continue to get full moon. The creatures of all the worlds were pleased with this boon given to the moon. Sudhakar Chandradev again started doing the work of Sudha-Varshan in ten directions.
 
Being freed from the curse, Chandradev along with other deities prayed to Lord Mrityunjaya to reside here forever with Mother Parvatiji for salvation of souls. Lord Shiva accepted his prayer and since then started living here with Mother Parvati in the form of Jyotirlinga.

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The glory of this Somnath-Jyotirlinga situated in the holy Prabhas Kshetra has been explained in detail in Mahabharata, Shrimad Bhagwat and Skandpuranadi. Moon also has a name Som, he did penance here considering Lord Shiva as his Nath-Swami.
 
That's why this Jyotirlinga is called Somnath, by seeing, worshiping and worshiping it, all the sins and misdeeds of the devotees of many births are destroyed. They become eligible for the inexhaustible grace of Lord Shiva and Mother Parvati. The path of salvation becomes easily accessible to them. All his worldly and otherworldly acts automatically become successful.
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The Adi Jyotirlinga Shri Somnath Mahadev Temple situated on the coast of the Arabian Sea in the west of the Indian subcontinent is unique. This pilgrimage center is one of the oldest pilgrimage centers in the country and it is also mentioned in ancient texts like Skandapuranam, Shrimad Bhagwat Gita, Shivpuranam etc. At the same time, the glory of Someshwar Mahadev is also mentioned in Rigveda.
 
This linga is considered to be the first Jyotirlinga among the twelve Jyotirlingas of Shiva. According to historical sources, the invaders attacked this temple 6 times. Even after this, the present existence of this temple is a reflection of the efforts and communal harmony of its reconstruction. For the seventh time this temple has been built in Kailash Mahameru Prasad style. Sardar Vallabhbhai Patel has also been associated with its construction work.
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This temple is divided into three main parts - Garbhagriha, Sabhamandap and Nrityamandap. It has a 150 feet high spire. The weight of the urn on its peak is ten tons and its flag is 27 feet high. Regarding its uninterrupted sea route - Trishtamb, it is believed that this sea route indirectly ends in the South Pole. This is considered a wonderful evidence of our ancient knowledge and wisdom. This temple was rebuilt by Queen Ahilyabai.
 
Religious Significance: According to mythological legends, Som is the name of Chandra, who was the son-in-law of Daksha. Once he disobeyed Daksha's order, enraged by which Daksha cursed him that his light would fade day by day. When the other gods asked Daksha to take back his curse, he said that by taking a bath in the sea at the mouth of Saraswati, the wrath of the curse can be stopped. Soma worshiped Lord Shiva by taking bath in the Arabian Sea situated at the mouth of Saraswati. Lord Shiva incarnated here and saved them and became famous as Somnath.
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How to reach
By Air- There is direct air service to Mumbai from a place called Keshod which is 55 km from Somnath. There are also bus and taxi services between Keshod and Somnath.
 
By Rail: The nearest railway station to Somnath is Veraval Railway Station, which is situated at a distance of only seven kilometers from there. There is direct connectivity from here to Ahmedabad and other places in Gujarat.

Road Transport- Somnath is located at a distance of 7 Kms from Veraval, Mumbai 889 Kms, Ahmedabad 400 Kms, Bhavnagar 266 Kms, Junagadh 85 Kms and Porbandar 122 Kms. Bus service is available to this place all over the state.
 
Vishramshala- There is arrangement of guest house, Vishramshala and Dharamshala for the pilgrims at this place. Simple and economical services are available. Overnight stay is also available at Veraval.

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