हमने अबतक अपने दो लेख में सती जी ने अनेक भगवान शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे। - सती शिव की कथा और सती का सीता का रूप धारण करके राम की परीक्षा लेना। - सती शिव की कथा को बताया। सती जी ने झूठ कहा कि वो श्री राम की परीक्षा नहीं ली है। लेकिन शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया। अब उसके आगे क्या हुआ यह बताने जा रहे है।
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥
भावार्थ :- भोलेनाथ मन में सोच रहे है - सती परम पवित्र हैं, इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है (जो भगवान से प्रेम करते है, उन्हें किसी और से प्रेम नहीं करना चाहिए, वह पाप है) प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है।
शिवजी के मन में सती त्याग की बात
तब शिवजी ने प्रभु श्री राम के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी पति-पत्नी रूप में भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया।
आकाशवाणी होना
स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की, आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं।
सती को त्याग की बात का शंका
इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा - हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु शिवजी ने कुछ न कहा। सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया। अपने आप को कोसती हुई बोली - स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है।
अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उन्होंने समझ लिया कि शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा, परन्तु शिवजी का रुख देखकर मैने ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु भीतर ही भीतर कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा है।
शिवजी की समाधि
शिवजी ने सती को चिंतित जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे। वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। उन्होंने अखण्ड और अपार समाधि लगा ली।
सती को दुःख
सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना। सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं, तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह प्रेम का व्रत मन, वचन और कर्म आचरण से सत्य है, तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह पति-परित्याग रूपी असह्य विपत्ति दूर हो जाए।
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