प्रत्येक रूप और प्रत्येक नाम में एक ही चेतना के उत्सर्ग की अनुभूति दुर्गा होना है।शक्ति वह शस्त्र है जिससे स्वयं व दूसरों के कल्याण के लिए समस्त विसंगतियों का समूल नाश किया जा सकता है। यह तय है कि जहां शक्ति का उपार्जन होता है वहीं आत्मविश्वास भी जन्म लेता है और आत्मविश्वास जब अनुशासित व सकारात्मक होता है, सफलता निश्चित ही उसका अनुगमन करती है। ऐसी शक्ति जिसकी उपासना ब्रहमा, विष्णु, महेश करते हैं।
जो हमारे शरीर और मन का कायाकल्प करती है। जिसकी अराधना के द्वारा हमारे लिए चेतना के मूल तक पहुंचना संभव होता है।ऐसी शक्ति जो व्रत और ध्यान के द्वारा हमारे ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर हमारे भीतर व्याप्त विसंगतियों का निर्मूलन करती है।
ऐसी शक्ति जिसके संपूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मानवता के आध्यात्मिक विकास और पराक्रम की वृद्धि के लिए अनुकरणीय है।ऐसी शक्ति जो धर्म की अधर्म पर,सत्य की असत्य पर, शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाना सिखाती है।ऐसी शक्ति जो मानव हित के लिए काल को वश में करना जानती है जिसकी अभ्यर्थना से मनोभावों को सकारात्मक दिशा मिलती है। ऐसी शक्ति जो यह संदेश देती है कि अपने सार्थक उदेश्यों जिसमें कि अपने वर्चस्व की प्राप्ति के लिए संघर्ष व सभी का कल्याण निहित है,संगठित और पराक्रमी होना ज़रूरी है।ऐसी ही विलक्षण शक्ति का स्वरुप हैं दुर्गा।
वर्षण अंतिम चरण पर है।ऋतु परिवर्तन की वेला है। सर्दी की नर्म सिहरन के साथ त्योहारों के आगमन की अनुभूति मन में उल्लास उत्पन्न कर रही है। प्रकृति अपने को धो-पोंछ कर सुखाने के प्रक्रम में हर तरफ दृष्टिगत है।नव अर्थात नवीनता,यह सृष्टि का नियम है कि यह पुराने के बाद स्वयं का पुनर्नवा करती है किंतु नवीनीकरण की यह सतत प्रक्रिया मानवीय संरचना में कहीं पिछड़ सी गयी प्रतीत होती है। मानव शरीर में आत्म संप्रेषण ही चेतना का नवीनीकरण या नवोन्मेष है,थोड़ा जटिल है किंतु उपवास,मौन,प्रार्थना व ध्यान के द्वारा नवरात्र का समय विशुद्ध चेतना के मूल तक पहुंचने का सुअवसर है हम सभी के लिए।शक्ति स्वरूपा दुर्गा उसी विशुद्ध चेतना को प्राप्त करने का अभिप्राय हैं।
रात्रि का अर्थ है अंधकार और अज्ञानता,अज्ञानता के ही कारण भ्रमित करने वाली भौतिक वस्तुएं हमें आकर्षित करती हैं व उनका अस्तित्व हमें सत्य प्रतीत होता है।
किंतु रात्रि में मन की एकाग्रता बढ़ाने के लिए उपयुक्त नीरवता भी होती है,यही वह सुविधाजनक समय है जब हम दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर शक्ति की आराधना व अनुष्ठान कर सकते हैं। इसलिए नव रात्रि का त्योहार मां शक्ति की आराधना के द्वारा स्वयं के भीतर पहुंच कर अज्ञानता से मुक्ति पा लेने का अवसर भी है।
हमारा जीवन तीन गुणों से संचालित होता है तमो गुण, रजोगुण,सतोगुण।नवरात्र में हम आदि शक्ति की पूजा-अर्चना द्वारा तमो गुण व रजो गुण को पार करके सतो गुण की ओर प्रवृत्त होकर, दुर्गा के व्यक्तित्व का अनुसरण करते हैं।
मां दुर्गा पालनहार हैं व संहारिणी भी। इसलिए वह अपने भक्तों द्वारा नि:स्वार्थ भक्ति-अर्चना करने पर ममतामयी होकर उनकी मनोकामना पूर्ण करती हैं और अपने वर्चस्व व समस्त मानव कल्याण के लिए कभी रौद्र रूप भी धारण कर लेती हैं।
मां दुर्गा के संपूर्ण अस्तित्व का बाना अपनी आंतरिक शक्ति पर विश्वास करना व निर्भीकतापूर्वक सफलता को प्राप्त करना है।वह एक योद्दा हैं जो शेर पर सवार होकर चंड-मुंड, शुंभ-निशुंभ,रक्तबीज,मधु-कैटभ व महिषासुर जैसे राक्षसों का मर्दन करती हैं। इसलिए उन्हें महिषासुरमर्दिनी भी कहा जाता है।
दुर्गा और महिषासुर की कहानी
हम मां दुर्गा की महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा पंडाल पर देखते हैं, जहां वह अपने रौद्र रुप में खड़ी हुई दिखाई देती हैं।मां की आंखें जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण चित्रित करती हैं। मां की मधुर व सौम्य मुस्कान हर परिस्थिति में शांत व स्थिर रहना सिखाती हैं। मां की आठ भुजायें विभिन्न प्रकार के आयुध व कमल धारण किये हुए हैं। यह आठ भुजाएं मां के द्वारा पूर्ण एकाग्रता के साथ विभिन्न कार्य - प्रयोजनों में एक ही समय में सिद्ध-हस्तता को भी दर्शाती हैं। मां के दायें हाथ की तर्जनी में घूमता हुआ सुदर्शन चक्र है जो धर्म ,न्याय व दूरदर्शिता का प्रतीक है।
देवी माँ दुर्गा की कहानी
मां दुर्गा के दांये हाथ में सुशोभित चमचमाती तलवार मां के यश व ज्ञान के साथ उनके पराक्रम व गौरवगाथा का प्रतीक भी है।मां के हाथ में ऊं का अर्थ संपूर्ण ब्रह्मांड और जगत का विस्तार यानि ईश्वर से है। अर्थात ऊं ही सर्वस्व है।ऊं में ही सभी शक्तियां निहित हैं।
मां दुर्गा ने अपने हाथ में वज्र धारण किया है जो दृढ़ता और संगठन का प्रतीक हैं। मां दुर्गा के बांये हाथ में शंख है।शंख ध्वनि व पवित्रता का प्रतीक है।यह ध्वनि नकारात्मकता को दूर करके शांति और समृद्धि उत्पन्न करती है। शंख के नाद की ही तरह हम सभी के भीतर भी एक नाद है जिसे अंतर्रात्मा की आवाज भी कह सकते हैं,जो हमें हर अच्छे और बुरे कार्य करने से पूर्व आगाह और निर्दिष्ट करती है।
मां दुर्गा द्वारा धारण किये गये तीर-धनुष उर्जा व शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।मां के हाथों में त्रिशूल के तीन नुकीले सिरे तम ,रज व सत प्रवृत्ति पर नियंत्रण का प्रतीक है।
माता के हाथों में कमल का फूल अनासक्ति अर्थात भौतिकता में रत रहकर भी उसके प्रति अनार्कषण व विरतता का प्रतीक है।जैसे कमल कीचड़ में रहकर भी अनासक्त होकर खिलता और महकता है।उसी प्रकार मनुष्य को भी सांसारिकता में रहकर भी विसंगतियों से दूर रहकर निरंतर स्वयं का विकास करते रहना चाहिए।
सिंह को उग्रता और हिंसक प्रवृत्तियों का प्रतीक माना गया है।मां दुर्गा का सिंह पर सवार होना उस उग्रता और हिंसक प्रवत्तियों पर नियंत्रण का ही प्रतीक है।
मां दुर्गा के पैर के नीचे दुष्ट राक्षस महिषासुर व मां का उसे त्रिशूल से मारना बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। मां दुर्गा द्वारा धारण किये गये आयुधों और व्यक्तित्व से ही नि:सृत है मां का शक्ति व पराक्रम से युक्त आभामंडल।
नवरात्रि का आरम्भ
पितृपक्ष खत्म होते ही मां दुर्गा का आह्वान नवरात्रि उत्सव के रुप में शुरू हो जाता है।नवरात्रि का आयोजन हमेशा मास के शुक्लपक्ष में ही होता है, शुक्लपक्ष यानि अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना। असत्य से सत्य की ओर यही गतिशीलता ज्ञान मार्ग की ओर प्रवृत्त होने का भी प्रतीक है।आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा में नवरात्रों का आयोजन अज्ञानरुपी जीवन को प्रकाशमान बनाने हेतु प्रेरित करता है।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नौ दिनों तक मां दुर्गा जी की पूजा अर्चना होती है और दशमी तिथि को विजय पर्व दशहरा का त्योहार मनाया जाता है।
दरअसल नवरात्र और दशहरा को एक-दूसरे का पर्याय भी कहा जा सकता है।क्योंकि जहां भारत के अधिकांश राज्यों में जगत जननी मां की अराधना की जाती है, वहीं भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम के संपूर्ण जीवन-दर्शन की झांकी जगह-जगह रामलीला के रुप में मंच पर प्रर्दशित की जाती है।
मां मनोरथ पूर्ण करने का प्रतीक भी हैं।नवरात्र में मां दुर्गा और प्रभु श्रीराम की उपासना किये जाने के संबंध में मान्यता है कि रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए श्रीराम ने आश्विन मास में मां शक्ति की श्रद्धा भाव से उपासना करके उनका आशीर्वाद लिया था। श्री राम ने रावण का वध करके अन्याय और अत्याचार के युग का अंत किया यहीं से शारदीय नवरात्र की शुरुआत मानी जाती है।
साल में चार नवरात्रि आती हैं। चैत्र नवरात्रि,शारदीय नवरात्रि और दो गुप्त रुप से आती हैं इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि भी कहा जाता है।
नारी सम्मान का प्रतीक हैं मां दुर्गा इसीलिए भारतीय संस्कृति में नये साल का आरंभ नारी शक्ति दुर्गा से होता है। शायद ही किसी और संस्कृति में इस तरह का पर्व मनाया जाता हो जहां स्त्री शक्ति की पूजा सालभर में दो बार की जाती है।
नवरात्रि में प्रत्येक दिन मां के अलग-अलग सभी नौ रूपों की पूजा की जाती है। मां के इन नौ रूपों में गहन भाव की अभिव्यक्ति है। शक्ति के यह रूप, प्रथम शैलपुत्री हैं जो कि पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं, इसलिए इन्हें शैलपुत्री कहा गया है।द्वितीय ब्रह्मचारिणी हैं।ब्रहम का अर्थ है तपस्या, भगवान शिव को पति के रुप में पाने के लिए मां पार्वती ने वर्षों तक कठिन तप किया था।अतः कठोर तपस्या में रत रहने वाली देवी को ब्रह्मचारिणी कहा जाता है।
तृतीय चंद्रघंटा हैं।इनके मस्तक पर अर्ध-चंद्र के आकार का तिलक सुशोभित है इसलिए इनको चंद्रघंटा कहा जाता है। चतुर्थ कुष्मांडा हैं।कुष्मांडा में ब्रहमांड को उत्पन्न करने की शक्ति व्याप्त है।वह स्वयं के भीतर संपूर्ण ब्रह्मांड को समेटे हुए हैं। इसलिए इन्हें कुष्मांडा कहा गया है।
पंचम स्कंदमाता हैं।मां पार्वती कार्तिकेय की माता हैं और कार्तिकेय का एक नाम स्कंद भी है इसीलिए मां पार्वती को स्कंदमाता भी कहा जाता है।
षष्ठी कात्यायिनी हैं। महिषासुर राक्षस का अत्याचार जब पृथ्वी पर बढ़ गया तब त्रिदेव अर्थात भगवान ब्रहमा,विष्णु और महेश ने महिषासुर के संहार हेतु अपने ओजस्वी अंश से एक शक्ति को उत्पन्न किया।इस देवी रूपी शक्ति की पूजा सर्वप्रथम महर्षि कात्यायन ने की थी। इसलिए शक्ति के इस रूप को कात्यायिनी कहा गया है।
सप्तम कालरात्रि हैं। जिस अस्तित्व में किसी भी प्रकार के संकट या काल से लड़ने की क्षमता है।ऐसी क्षमता का वरण करने वाली शक्ति मां कालरात्रि हैं।
अष्टम महागौरी हैं।कहा जाता है कि भगवान शिव को पाने के लिए मां पार्वती ने इतना कठोर व दुरूह तप किया कि उनका रंग-रूप काला पड़ गया।मां की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया।मां पार्वती के पुनः गंगा स्नान के उपरांत वह शुभ्र व कान्तिमय हो गयीं। पार्वती का यह कान्तिमय रूप महागौरी के नाम से जाना जाता है।नवम सिद्धिदात्री हैं। अपने भक्तों को सिद्धि प्रदान करने के कारण इन्हें सिद्धिदात्री कहा गया है।
मां दुर्गा की शक्ति के यह नौ रूप समाज में यह संदेश देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार नये रंग,नये रुप,नयी शैली में ढलना ही दुर्गा के व्यक्तित्व को स्वीकार करना है।मां दुर्गा की शक्ति के इन्हीं नौ रूपों की उत्तर भारत में नवरात्र के रुप में पूजा की जाती है। पूजा के स्थान पर शुभ मुहूर्त में घट स्थापना की जाती है।घट जल का सूचक है और वेदों में जल यानि वरूण देवता किसी भी शुभ कार्य के निर्विघ्न संपन्न होने हेतु बंधनमुक्ति का आधार हैं। शक्ति का संचय तभी हो सकता है जब पूजा,अर्चना बंधनमुक्त व बाधारहित हो। नवरात्र मात्र हमारे धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं अपितु यह हमारी देह,चेतना के शुद्धिकरण का माध्यम भी हैं।
मां दुर्गा की असत्य पर सत्य की जीत हमें सत्य के मार्ग पर अडिग रहने का संदेश देती है। यही सत्य हमारे आत्मबल में वृद्धि करके हम सभी में आत्मविश्वास पैदा करता है।मां के नौ दिनों के व्रत में स्वत: ही हमारे आचार और विचारों पर संयम हो जाता है। यही आत्मनिग्रह हमारे भीतर एक अध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है इसी शक्ति के द्वारा ही हम उस दैवीय शक्ति से जुड़ने का आधार प्राप्त करते हैं।यह मां दुर्गा के सानिध्य का ही प्रभाव है कि हम सभी नवरात्र में भक्तिमय और सकारात्मक रहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि अच्छे लोग और अच्छे वातावरण की संगति हमारे जीवन में बहुत ज़रूरी है।
शारदीय नवरात्र आश्विन मास की शुक्ल पक्ष से प्रारंभ होता है।यह समय मौसम में बदलाव आने का भी है। इन दिनों सात्त्विक भोजन ग्रहण करने का परिणाम यह भी है कि मौसम परिवर्तन जनित बीमारियां हमारी सेहत पर दुष्प्रभाव नहीं डालती हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति ,मांगलिक कार्यों में अनाज के साथ पूजन की पौराणिक परंपरा है। इसी कारण हमारे उत्सवों,अनुष्ठानों में जौ की प्रासंगिकता है।जौ को संस्कृत में यव कहा जाता है .मान्यताओं के अनुसार घट स्थापना के साथ जौ (ज्वारा)बोने का यह धार्मिक महत्त्व है कि पृथ्वी पर सौ वर्ष तक वर्षा नहीं होने के कारण आदिशक्ति दुर्गा शाकंभरी के स्वरूप में मानव कल्याण के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई और उनके शरीर से उपजी जिन शाखों से उन्होंने संपूर्ण जगत का भरण-पोषण किया वह जौ ही थीं। जौ पृथ्वी पर उगने वाली वह पहली फसल थी जिसने मानव जाति का भरण-पोषण किया।चूंकि यह स्वयं मां शाकंभरी द्वारा प्रकट हुई है इसलिए इसे पूर्ण फसल भी कहा जाता है।
दुर्गा पूजा का त्यौहार
जौ पृथ्वी पर सबसे प्राचीन काल से कृषि किये जाने वाले अनाजों में से एक है। इसे इसी कारण ज्येष्ठ अनाज भी कहा जाता है।जौ को ब्रहम स्वरूप भी माना गया है। बसंत ऋतु की यह पहली फसल है जिसे सबसे पहले देवी को अर्पित किया जाता है।नवरात्रि हमारे देश में विभिन्न नामों से मनाती जाती है।जैसे कि दुर्गोत्सव,दुर्गा पूजो,अकाल उत्सव,शारदीय पूजो,महापूजो,भगबती पूजो इत्यादि, बांग्लादेश में इसे भगबती पूजो के नाम से जाना जाता है। गुजरात में नवरात्रि को डांडिया और गरबा के रुप में मनाया जाता है।हिमाचल के कुल्लू जिले में इसे कुल्लू दशहरा, दक्षिण भारत में इस पूरे महीने विशेष पकवान बनाए जाने और चारों दिशाओं को दीपों से प्रकाशमान करने की परंपरा है।,कर्नाटक के मैसूर राज्य में मैसूर दशहरा, तमिलनाडु में बोम्मई गोलू, आंध्रप्रदेश में बोम्मला कोलुवु व तेलंगाना में बठुकम्पा के नाम से मनाया जाता है।
दुर्गा पूजा का त्यौहार मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल में मनाया जाता है।दुर्गा पूजा के त्योहार का रंग और संस्कृति की चमक जो बंगाल में दृष्टिगोचर है वह अन्यथा कहीं नहीं। दुर्गा पूजा का त्योहार भारत के कुछ अन्य राज्यों जैसे कि गुजरात, महाराष्ट्र,असम,उड़ीसा, बिहार,झारखंड,त्रिपुरा में भी मनाया जाता है।
पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा का प्रारंभ पांचवें दिन से शुरू होता है जिसे कि महालय कहा जाता है।इसके बाद के दिनों को षष्ठी,महासप्तमी,महाअष्टमी,महानवमी तथा विजयादशमी के नाम से जाना जाता है।छठे दिन मां दुर्गा को जगाकर उनका स्वागत किया जाता है जिसे बोधना कहा जाता है।छठे दिन भी मां को अनेक प्रकार के भोग लगाये जाते हैं तथा उनकी पूजा अर्चना की जाती है जिसे अधिवास कहा जाता है।
सातवें दिन मां को पवित्र स्नान कराया जाता है जिसे नवपत्रिका स्नान कहा जाता है। कहते हैं अष्टमी के दिन महिषासुर से युद्ध करते हुए मां ने भयंकर रूप धारण किया था।इसी दिन मां दुर्गा की तीसरी आंख से चामुंडा,चंडी देवी उत्पन्न हुई जिसने राक्षसों का वध किया।इसी उपलक्ष्य में अष्टमी और नवमी बड़ी धूमधाम से मनायी जाती है।तत्पश्चात एक से सोलह वर्ष तक की कन्याओं को दुर्गा का रूप मानकर उनकी अराधना व पूजन किया जाता है।
नवरात्रि के दिनों में पंडाल के बाहर और परिसर में ढोल जिसे ढाक कहा जाता है बजता रहता है ।इसी ढाक की थाप और शंखनाद में मां की अराधना में लीन भक्तणण सप्तमी से नवमी तक धुनुची नृत्य करते हैं।
दरअसल धुनुची नृत्य एक प्रकार का शक्ति नृत्य है।जिसे मां की शक्ति और ऊर्जा में अभिवृद्धि के लिए किया जाता है।चूंकि महिषासुर अत्यधिक बलशाली था।उसे कोई भी देवता या नर नहीं मार सकता था।इसीलिए मां दुर्गा महिषासुर का संहार करने के लिए जाती हैं। इसीलिए मां के भक्तों द्वारा उनकी शक्ति व ऊर्जा बढ़ाने के लिए धुनुची नृत्य किया जाता है।।धुनुची एक प्रकार का मिट्टी का बरतन होता है जिसमें नारियल की जूट और हवन सामग्री (धुनों) डालकर मां दुर्गा को प्रसन्न किया जाता है।
दस दिनों तक चलने वाले इस त्योहार का अंत दशमी (विजयादशमी) पर मां दुर्गा की भव्य पूजा और श्रृंगार होता है।सुहागन स्त्रियां लाल पाड़ की पारंपरिक साड़ी पहने हाथों में पूजा की थाली लेकर मां के साथ सिंदूर की होली खेलती हैं और आपस में सिंदूर डालती हैं जिसे सिंदूर खेला कहा जाता है।तदोपरांत मूर्तियों को पंडालों से निकालकर नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।मान्यता है कि इसके पश्चात मां दुर्गा पुनः अपने लोक कैलाश पर्वत को चली जाती है।
आदिशक्ति नौ दुर्गा के समस्त नौ रुपों की स्तुति से यही अनुभूति होती है कि आत्म-विकास और समस्त मानव कल्याण के लिए चेतना के स्तर को उस चरम पर लेकर जायें जहां उस दैवीय सत्ता का सामीप्य हमें प्राप्त हो सके।
शक्तिका सकारात्मक उपार्जन,सत्य के लिए संघर्ष,बुराई का संहार,आत्मविश्वास में वृद्धि सहृदयता,दृढसंकल्पता,अध्यात्म,जप,तप यही वह जीवन मूल्य हैं जिनसे हम अपने जीवन के शुक्लपक्ष को प्रकाशित कर सकते हैं। दुर्गा के प्रत्येक नौ रूप और प्रत्येक नाम में एक ही उद्देश्य,चेतना के उत्सर्ग की अनुभूति ही सही मायने में दुर्गा के व्यक्तित्व को स्वयं के भीतर उतारना है।
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