जगन्नाथ मंदिर हिन्दुओं का अत्यंत प्रसिद्द मंदिर है जो कि भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ का अर्थ है 'जगत के स्वामी', इसलिए यह नगरी जगन्नाथ पुरी कहलाती है। यह हिन्दुओं के प्रसिद्द चार धामों में एक है। यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है, जिसमे इनके साथ इनके भाई बलराम और बहिन सुभद्रा भी मौजूद हैं।
मंदिर का इतिहास :-
मंदिर की मुख्य प्रतिमा
यह मंदिर वैष्णव संत रामानंद स्वामी जी से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योकि इस पंथ के संस्थापक चैतन्य महाप्रभु जी भगवान से साक्षात्कार होने के बाद पुरी में कई वर्षो तक रहे थे।
यह मंदिर कितना वर्ष पुराण है इसका ठीक ठीक अनुमान नहीं लगा है, किन्तु गंग वंश के ताम्र पत्रों से यह पता लगा है की वर्तमान मंदिर के निर्माण को कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था। उसके बाद सन 1197 में ओडिशा शासक अनंग भीम देव ने मंदिर को वर्तमान रूप दिया।
इस मंदिर में शुरू से पूजा अर्चना सन 1558 तक होती थी, फिर उस वर्ष में अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और अनेकों मंदिर व मूर्तियों का विध्वंश कर दिया। उसने अपने काल में जहाँ जहाँ हमला किया था वहां पूजा बंद करवा दी और विग्रहों को गुप्त में चिलिका झील के एक द्वीप में छुपा दिया। बाद में रामचंद्र देव के खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई।
मंदिर की पौराणिक कथा :-
इस मंदिर से जुडी कथाओं के अनुसार भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह अत्यंत चमकदार मूर्ति थी, जिसके प्रकाश में आँखे चका चौंध हो जाती थी इसलिए इसे पृथ्वी के नीचे छुपा दिया गया। एक बार मालवा के नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी जिसमे भगवान ने उसे आदेश दिया कि उस मूर्ति को मंदिर में स्थापित करे। उसने मूर्ति की खोज करवाई किन्तु मूर्ति नहीं मिली, तब राजा ने कड़ी तपस्या की और फलस्वरूप भगवान ने उसे बताया की वह पुरी के समुद्र तट पर जाएँ, वहां उन्हें एक दारु(लकड़ी) का लट्ठा मिलेगा। उस लकड़ी से मूर्ति बनवाये और उसे मंदिर में स्थापित कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लट्ठा मिल गया। उसके बाद राजा को बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी मिल गए जिन्होंने मूर्ति बनाने की इच्छा प्रकट की। किन्तु इसके साथ ही एक शर्त रखी की वे एक बंद कमरे में ही मूर्ति बनायंगे और यदि किसी ने वह द्वार खोला तो वे मूर्ति का कार्य आधा छोड़ कर चले जायँगे। राजा ने शर्त स्वीकार कर ली और उसे एक कक्ष दे दिया। कुछ दिनों तक कक्ष से आवाज़ आती रही किन्तु कुछ दिनों बाद वह आवाज़ आनी बंद हो गयी। राजा ने सोचा की कही उस वृद्ध व्यक्ति को कुछ हो न गया हो, इसलिए उसने द्वार खोल दिए। अंदर देखा तो भगवान् की अधूरी मूर्ति थी और वह व्यक्ति वह नहीं था। राजा समझ गया की वह स्वयं विश्वकर्मा जी थे और शर्त तोड़ने के कारन वे चले गए हैं। राजा को बहुत दुःख हुआ, किन्तु रात्रि में फिर से उसके स्वप्न में भगवान विष्णु जी आये और बोले की मूर्तियां ऐसी ही रहे ये उनकी इच्छा थी, इसलिए उन मूर्तियों को इसी अवस्था में मंदिर में स्थापित करवा दो। राजा ने ऐसा ही किया, और तब से प्रत्येक वर्ष दारु ले लट्ठे से ऐसी ही प्रतिमाएं बनाई जाती हैं।
मंदिर का महत्व :-
जगन्नाथ पुरी का मुख्य परिसर
मंदिर के मुख्य देव भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा हैं। इनकी मूर्तियां गर्भ गृह में स्थापित की गयीं हैं। यहां कई त्यौहार व उत्सव मनाये जाते हैं जिनमे हज़ारों लोग भाग लेते हैं। यहां सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव होता है रथ यात्रा का, जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया(जून/ जुलाई) को मनाई जाती है। इस अवसर पर तीनों मूर्तियों को तीन अलग अलग विशाल रथ पर बैठा कर पूरे नगर में यात्रा कराई जाती है, जो की 5 किलोमीटर लम्बी होती है। इसमें लाखों की संख्या में लोग भाग लेते हैं तथा रथ खींचते हैं। यहां का मुख्य आकर्षण यहां की रसोई है, यह भारत की सबसे बड़ी रसोई है, जहाँ भगवान् को चढाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए 500 रसोईए तथा उनके 300 सहयोगी कार्य करते हैं।
मंदिर का स्वरुप :-
मंदिर का क्षेत्रफल 400,000 वर्ग फुट में वृस्तृत है जो की चारों ओर दिवार से घिरा हुआ है। यह मंदिर अत्यंत भव्य है, यह कलिंग शैली में बना है। इसकी स्थापत्यकला और शिल्प बहुत ही आश्चर्यजनक हैं जो इस मंदिर को विशेष बनाते हैं। मुख्य मंदिर का आकर वक्ररेखीय है तथा इसके शिखर पर श्री हरी का सुदर्शन चक्र मंडित किया गया है, इसे नीलचक्र भी कहा जाता है। यह चक्र भी विशेष है क्योकि यह अष्टधातु से निर्मित है जो की अत्यंत पावन माना गया है। इस मंदिर का मुख्य भवन एक चबूतरे पर बनाया गया है जिसकी ऊंचाई 214 फीट है। इसी भवन के भीतर गर्भ गृह है जहाँ मुख्य मूर्तियां रखी गयीं हैं। इस मंदिर के आस पास भी छोटे छोटे मंदिर बने हैं, मंदिर के मुख्य द्वार के सामने सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तम्भ बना है। यह द्वार दो सिंहो द्वारा सुरक्षित है।
दर्शन समय सारणी :-
जगन्नाथ पुरी के द्वार सप्ताह के सभी दिन प्रातःकाल 5.00 बजे से शाम 11.00 बजे तक खुले रहते हैं। इस दौरान यहां अनेक रीतियां और अनुष्ठान किये जाते हैं, जिनके दर्शन भक्तगण कर सकते हैं, जैसे - द्वारपीठ और मंगल आरती, मैलम(पुराने वस्त्र बदलकर नए वस्त्र धारण करना), सहनमेला, रोष होम सूर्य पूजा, गोपाला बल्लवा पूजा, सकल धूप, भोग मंडप आदि। यह सभी रीतियाँ सुबह 5.00 बजे से दोपहर लगभग 1.30 बजे तक चलती हैं। उसके बाद देवताओं को 1 बजे से 1.30 बजे तक कुछ देर के लिए अवकाश दिया जाता है और फिर सांय काल में 6.00 बजे से फिर से संध्या आरती, संध्या धूप, मैलम और अंत में सेज पूजा आदि की जाती है। इसके बाद मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं और किसी भी दर्शनार्थी को मंदिर प्रांगण में रहने की अनुमति नहीं होती। कुछ विशेष दर्शन भक्त गण भगवान के पास रहकर देख सकते हैं जिसके लिए उन्हें शुल्क देना होता है-
दर्शन लागत समय
रत्न सिंघासन के पास दर्शन 10 / - मध्यान धूप और सकल धूप के बाद
मैलम और चंदन 10 / - संध्या धूप के बाद
रत्न सिंघासन के पास दर्शन निःशुल्क सहनमेला के दौरान
भीतर कथा के पास दर्शन 1.50 / - बेशलागी के दौरान
पुरी की रथ यात्रा
कैसे पहुचें? :-
हवाई यात्रा द्वारा:
पुरी में कोई हवाई अड्डा नहीं है, किन्तु इसका निकटतम हवाई अड्डा भुवनेश्वर हवाई अड्डा है। यहाँ से पुरी 53 किमी दूर स्थित है। विशाखपत्तनम एयरपोर्ट से पुरी 372 किमी दूर स्थित है।
रेल यात्रा द्वारा:
पुरी पहुंचने के लिए रेल यात्रा सबसे सुविधाजनक है, क्योकि यहां लगभग हर मुख्य शहर रेल द्वारा सीधा जुड़ता है। यहां आने के लिए नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, ओखा, अहमदाबाद, तिरुपति आदि से एक्सप्रेस और सुपर फ़ास्ट ट्रेन लिंक हैं। पुरी से 44 किमी दूर खुर्दा रोड स्टेशन चेन्नई और पश्चिमी भारत के लिए ट्रेन के द्वारा सफर करने के लिए सुविधाजनक रेल हेड है। यह स्टेशन शहर से लगभग एक किमी उत्तर में स्थित है। यहाँ से आपको आगे के सफर के लिए साइकिल रिक्शा और ऑटो रिक्शा आसानी से उपलब्ध हो जायँगे।
सड़क द्वारा:
गुंडिचा मंदिर के पास बस स्टैंड हर 10-15 मिनट में भुवनेश्वर और कटक से कनेक्शन प्रदान करता है। कोणार्क के लिए मिनीबस हर 20-30 मिनट में निकलती है, और ऐसी ही सेवा जातिअबाबा छक से भी उपलब्ध है। कोलकाता तथा विशाखापत्तनम के लिए भी सीधी बसें उपलब्ध हैं।
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