Current Date: 22 Nov, 2024

श्री वैद्यनाथ ज्योर्तिलिंग का इतिहास और इससे जुड़ी कहानी (Shri Vaidyanath Jyotirling Ka Itihas Aur Isse Judi Kahani)

- The Lekh


श्री वैद्यनाथ ज्योर्तिलिंग का इतिहास और इससे जुड़ी कहानी

बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग | Baba Baidyanath Jyotirlinga Mandir

श्री वैद्यनाथ शिवलिंग का समस्त ज्योतिर्लिंगों की गणना में नौवाँ स्थान बताया गया है। भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर अवस्थित है, उसे 'वैद्यनाथधाम' कहा जाता है। यह स्थान झारखण्ड प्रान्त, पूर्व में बिहार प्रान्त के सन्थाल परगना के दुमका नामक जनपद में पड़ता है।

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स्थिति
पुराणों में ‘परल्यां वैद्यनाथं च’ ऐसा उल्लेख मिलता है, जिसके आधार पर कुछ लोग वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का स्थान 'परलीग्राम' को बताते हैं। 'परलीग्राम' निज़ाम हैदराबाद क्षेत्र के अंतर्गत पड़ता है। हैदराबाद शहर से जो रेलमार्ग परभणी जंक्शन की ओर जाता है, उस परभनी जंक्शन से परली स्टेशन के लिए रेल की एक उपशाखा जाती है। इसी परली स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर परलीग्राम है, जिसके पास ही ‘श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। यहाँ का मन्दिर अत्यन्त पुराना है, जिसका जीर्णोद्धार रानी अहिल्याबाई ने कराया था। यह मन्दिर एक पहाड़ी के ऊपर निर्मित है। पहाड़ी से नीचे एक छोटी नदी भी बहती है तथा एक छोटा-सा शिवकुण्ड भी है। पहाड़ी के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। लोगों की मान्यता है कि परली ग्राम के पास स्थित वैद्यनाथ ही वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है।

शिव पुराण के अनुसार
मान्य ग्रन्थ प्राचीन शिव पुराण के अनुसार झारखण्ड प्रान्त के जसीडीह रेलवे स्टेशन के समीप स्थित देवघर का श्री वैद्यनाथ शिवलिंग ही वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है–

वैद्यनाथावतारो हि नवमस्तत्र कीर्तित:।
आविर्भूतो रावणार्थं बहुलीलाकर: प्रभु:।।
तदानयनरूपं हि व्याजं कृत्वा महेश्वर:।
ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण चिताभूमौ प्रतिष्ठित:।।
वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोऽभूज्जगत्त्रये।
दर्शनात्पूजनाद्भभक्या भुक्तिमुक्तिप्रद: स हि।।

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वैद्यनाथ नौवाँ ज्योतिर्लिंग
श्री शिव महापुराण के उपर्युक्त द्वादश ज्योतिर्लिंग की गणना के क्रम मे श्री वैद्यनाथ को नौवाँ ज्योतिर्लिंग बताया गया है। स्थान का संकेत करते हुए लिखा गया है कि ‘चिताभूमौ प्रतिष्ठित:’। इसके अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी ‘वैद्यनाथं चिताभूमौ’ ऐसा लिखा गया है। ‘चिताभूमौ’ शब्द का विश्लेषण करने पर परली के वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंगों में नहीं आते हैं, इसलिए उन्हें वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मानना उचित नहीं है। सन्थाल परगना जनपद के जसीडीह रेलवे स्टेशन के समीप देवघर पर स्थित स्थान को 'चिताभूमि' कहा गया है। जिस समय भगवान शंकर सती के शव को अपने कन्धे पर रखकर इधर-उधर उन्मत्त की तरह घूम रहे थे, उसी समय इस स्थान पर सती का हृत्पिण्ड अर्थात हृदय भाग गलकर गिर गया था। भगवान शंकर ने सती के उस हृत्पिण्ड का दाह-संस्कार उक्त स्थान पर किया था, जिसके कारण इसका नाम ‘चिताभूमि’ पड़ गया। श्री शिव पुराण में एक निम्नलिखित श्लोक भी आता है, जिससे वैद्यनाथ का उक्त चिताभूमि में स्थान माना जाता है।

प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:।
वैद्यनाथेति सम्प्रोच्य नत्वा नत्वा दिवं ययु:।।

अर्थात ‘देवताओं ने भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन किया और उसके बाद उनके लिंग की प्रतिष्ठा की। देवगण उस लिंग को ‘वैद्यनाथ’ नाम देकर, उसे नमस्कार करते हुए स्वर्गलोक को चले गये।’

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कथा
वैद्यनाथ लिंग की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की। उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिये। इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे। प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया। उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा। रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें। शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा। जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में ‘चिताभूमि’ में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई। उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया। वह लिंग वहीं अचल हो गया। वापस आकर रावण ने काफ़ी ज़ोर लगाकर उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा, किन्तु वह असफल रहा। अन्त में वह निराश हो गया और उस शिवलिंग पर अपने अँगूठे को गड़ाकर (अँगूठे से दबाकर) लंका के लिए ख़ाली हाथ ही चल दिया। इधर ब्रह्मा, विष्णु इन्द्र आदि देवताओं ने वहाँ पहुँच कर उस शिवलिंग की विधिवत पूजा की। उन्होंने शिव जी का दर्शन किया और लिंग की प्रतिष्ठा करके स्तुति की। उसके बाद वे स्वर्गलोक को चले गये।

यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुकूल फल देने वाला है। इस वैद्यनाथ धाम में मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर एक विशाल सरोवर है, जिस पर पक्के घाट बने हुए हैं। भक्तगण इस सरोवर में स्नान करते हैं। यहाँ तीर्थपुरोहितों (पण्डों) के हज़ारों घाट हैं, जिनकी आजीविका मन्दिर से ही चलती है। परम्परा के अनुसार पण्डा लोग एक गहरे कुएँ से जल भरकर ज्योतिर्लिंग को स्नान कराते हैं। अभिषेक के लिए सैकड़ों घड़े जल निकाला जाता हैं। उनकी पूजा काफ़ी लम्बी चलती है। उसके बाद ही आम जनता को दर्शन-पूजन करने का अवसर प्राप्त होता है।

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यह ज्योतिर्लिंग रावण के द्वारा दबाये जाने के कारण भूमि में दबा है तथा उसके ऊपरी सिरे में कुछ गड्ढा सा बन गया है। फिर भी इस शिवलिंग मूर्ति की ऊँचाई लगभग ग्यारह अंगुल है। सावन के महीने में यहाँ मेला लगता है और भक्तगण दूर-दूर से काँवर में जल लेकर बाबा वैद्यनाथ धाम (देवघर) आते हैं। वैद्यनाथ धाम में अनेक रोगों से छुटकारा पाने हेतु भी बाबा का दर्शन करने श्रद्धालु आते हैं। ऐसी प्रसिद्धि है कि श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की लगातार आरती-दर्शन करने से लोगों को रोगों से मुक्ति मिलती है।

कोटि रुद्र संहिता के अनुसार
श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार लिखी गई है–

राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था। एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया। राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।

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वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था। इन तीन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए। ऐसा कहा जाता है कि दुष्ट आत्माओं द्वारा भगवान को रिझाना बड़ा कठिन होता है। कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब रावण अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा। वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और उस पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटता तथा भगवान को समर्पित कर देता था। इस प्रकार क्रमश: उसने अपने नौ मस्तक काट डाले। जब वह अपना अन्तिम दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब तक भक्तवत्सल भगवान महेश्वर उस पर सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गये। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को स्वस्थ करते हुए उन्हें पूर्ववत जोड़ दिया।

भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– ‘देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।’ इस प्रकार रावण के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये। उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– ‘राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो’–

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प्रसन्नोभव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम्।
सफलं कुरू मे कामं त्वामहं शरणं गत:।।
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन स:।
प्रत्युवाच विचेतस्क: संकटं परमं गत:।।
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया।
नीयतां स्वगृहे मे हि सदभक्त्या लिंगमुत्तमम्।।
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै।
स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरू।।

भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहता हुआ राक्षसराज रावण उस शिवलिंग को साथ लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया। भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) की प्रबल इच्छा हुई। सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाल के हाथ में पकड़ा कर स्वयं पेशाब करने के लिए बैठ गया। एक मुहूर्त बीतने के बाद वह ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं पृथ्वी में स्थिर हो गया।

जब शिवलिंग लोक-कल्याण की भावना से वहीं स्थिर हो गया, तब निराश होकर रावण अपनी राजधानी की ओर चल दिया। उसने राजधानी में पहुँचकर शिवलिंग की सारी घटना अपनी पत्नी मंदोदरी से बतायी। देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये। भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की। सभी ने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया–

तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै।
रावण: स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम्।।
तच्छुत्वा सकला देवा: शक्राद्या मुनयस्तथा।
परस्परं समामन्त्र्य शिवसक्तधियोऽमला:।।
तस्मिन् काले सुरा: सर्वे हरिब्रह्मदयो मुने।
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषत:।।
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:।
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा – नत्वा दिवं ययु:।।

इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया। जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है।

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अन्य प्रसंग-1
एक अन्य प्रसंग के अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य (सप्त ऋषियों में से एक) की तीन पत्नियाँ थी। पहली से कुबेर, दूसरी से रावण और कुंभकर्ण, तीसरी से विभीषण का जन्म हुआ। रावण ने बल प्राप्ति के निमित्त घोर तपस्या की। शिव ने प्रकट होकर रावण को शिवलिंग अपने नगर तक ले जाने की अनुमति दी। साथ ही कहा कि मार्ग में पृथ्वी पर रख देने पर लिंग वहीं स्थापित हो जाएगा। रावण शिव के दिये दो लिंग 'कांवरी' में लेकर चला। मार्ग मे लघुशंका के कारण, उसने कांवरी किसी 'बैजू' नामक चरवाहे को पकड़ा दी। शिवलिंग इतने भारी हो गए कि उन्हें वहीं पृथ्वी पर रख देना पड़ा। वे वहीं पर स्थापित हो गए। रावण उन्हें अपनी नगरी तक नहीं ले जाया पाया।जो लिंग कांवरी के अगले भाग में था, चन्द्रभाल नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा जो पिछले भाग में था, वैद्यनाथ कहलाया। चरवाहा बैजू प्रतिदिन वैद्यनाथ की पूजा करने लगा। एक दिन उसके घर में उत्सव था। वह भोजन करने के लिए बैठा, तभी स्मरण आया कि शिवलिंग पूजा नहीं की है। सो वह वैद्यनाथ की पूजा के लिए गया। सब लोग उससे रुष्ट हो गए। शिव और पार्वती ने प्रसन्न होकर उसकी इच्छानुसार वर दिया कि वह नित्य पूजा में लगा रहे तथा उसके नाम के आधार पर वह शिवलिंग भी 'बैजनाथ' कहलाए।

अन्य प्रसंग-2
शिव पुराण में कई ऐसे आख्यान हैं जो बताते हैं कि शिव वैद्यों के नाथ हैं। कहा गया है कि शिव ने रौद्र रूप धारण कर अपने ससुर दक्ष का सिर त्रिशुल से अलग कर दिया। बाद में जब काफ़ी विनती हुई तो बाबा बैद्यनाथ ने तीनों लोकों में खोजा पर वह मुंड नहीं मिला। इसके बाद एक बकरे का सिर काट कर दक्ष के धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिया। इसी के चलते बकरे की ध्वनि - ब.ब.ब. के उच्चरण से महादेव की पूजा करते हैं। इसे गाल बजा कर उक्त ध्वनि को श्रद्धालु बाबा को खुश करते हैं। पौराणिक कथा है कि कैलाश से लाकर भगवान शंकर को पंडित रावण ने स्थापित किया है। इसी के चलते इसे रावणोश्वर बैद्यनाथ कहा जाता है। यहां के दरबार की कथा काफ़ी निराली है।

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कैसे पहुँचे
यह जसीडीह रेलवे स्टेशन से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है तथा सड़क मार्ग से भी यहाँ पहुँचने की अच्छी व्यवस्था है।

History of Shri Vaidyanath Jyotirlinga and the story related to it

Shri Vaidyanath Shivling has been described as the ninth place in the calculation of all Jyotirlingas. The place where the temple of Lord Shri Vaidyanath Jyotirlinga is situated is called 'Vaidyanathdham'. This place falls in Dumka district of Santhal Pargana of Jharkhand province, formerly of Bihar province.

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Situation
In the Puranas, such a mention is found as 'Parlyan Vaidyanatham Cha', on the basis of which some people tell the place of Vaidyanath Jyotirlinga to 'Parligram'. 'Parligram' falls under Nizam Hyderabad region. The line from Hyderabad city to Parbhani Junction has a branch line from Parbhani Junction to Parli station. Parligram is just a short distance from this Parli station, near which 'Shri Vaidyanath Jyotirlinga' is situated. The temple here is very old, which was renovated by Queen Ahilyabai. This temple is built on top of a hill. A small river also flows below the hill and there is also a small Shivkund. Stairs have been made to go up the hill. People believe that Vaidyanath situated near Parli village is the real Vaidyanath Jyotirlinga.

According to Shiva Purana
According to the ancient Shiva Purana, the valid Vaidyanath Shivling of Deoghar located near Jasidih railway station of Jharkhand province is the real Vaidyanath Jyotirlinga –

Vaidyanaathaavataaro hi navamastatr kiirtit:.
Aavirbhuuto raavaṇaartham bahuliilaakar: prabhu:..
Tadaanayanaruupam hi vyaajam kṛtvaa maheshvar:.
Jyotirlingasvaruupeṇ chitaabhuumow pratishṭhit:..
Vaidyanaatheshvaro naamnaa prasiddhoऽbhuujjagattraye.
Darshanaatpuujanaadbhabhakyaa bhuktimuktiprad: s hi..

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Vaidyanath Ninth Jyotirlinga
Shri Vaidyanath has been described as the ninth Jyotirlinga in the order of counting the above twelve Jyotirlingas of Shri Shiv Mahapuran. Indicating the place, it is written that 'Chitabhumau Pratishitah:'. Apart from this, 'Vaidyanatham Chitabhumau' has been written like this at other places as well. Parli's Vaidyanath Dwadash Jyotirlingas do not come in the analysis of the word 'Chitabhumau', so it is not appropriate to consider them as real Vaidyanath Jyotirlingas. The place situated at Deoghar near Jasidih railway station of Santhal Pargana district has been called 'Chitabhoomi'. At the time when Lord Shankar was roaming here and there like a maniac with the dead body of Sati on his shoulder, at the same time Sati's Hritpind i.e. the heart part melted and fell at this place. Lord Shankar had cremated that body of Sati at that place, due to which it got its name 'Chitabhoomi'. A following verse also comes in Shri Shiv Puran, due to which Vaidyanath's place is considered in the said Chitabhoomi.

Pratyaksham tam tadaa dṛshṭavaa pratishṭhaapy ch te suraa:.
Vaidyanaatheti samprochy natvaa natvaa divam yayu:..

That is, 'the gods had a direct darshan of the Lord and after that they worshiped his linga. Devgan named that Linga as 'Vaidyanath', went to heaven after saluting him.

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Story
It is written in relation to the establishment of Vaidyanath Linga that once the demon King Ravana did severe penance to Lord Shiva by standing on the Himalayas. That demon chopped off each of his head and offered it on the Shivling. In this process, he offered his nine heads and Lord Shankar was pleased when he was ready to cut off the tenth head. Appearing, Lord Shiva restored the ten heads of Ravana as before. He asked Ravana to ask for a boon. Ravana asked Lord Shiva to grant me permission to take this Shivling and install it in Lanka. Shankarji gave permission to Ravana with the condition that if you keep this linga on the ground on the way while carrying it, it will get established (immovable) there. When Ravana walked with the Shivling, he had a tendency to pass urine in the 'Chitabhoomi' on the way. He caught that linga to an Ahir and went to retire with little doubt. Here, due to the heavyness of the Shivling, that Ahir put it on the ground. That ling became immovable there. After coming back, Ravana tried to uproot that Shivling with a lot of force, but he failed. In the end, he got disappointed and after burying his thumb (pressing with thumb) on that Shivling left empty handed for Lanka. Here Brahma, Vishnu, Indra etc. gods reached there and duly worshiped that Shivling. He visited Lord Shiva and worshiped the Linga and praised it. After that they went to heaven.

This Vaidyanath Jyotirlinga is going to give man the fruit according to his wish. In this Vaidyanath Dham, there is a huge lake at a short distance from the temple, on which concrete ghats are built. Devotees take bath in this lake. There are thousands of ghats of pilgrimage priests (Pandas) here, whose livelihood runs from the temple itself. According to tradition, the Pandavas bathe the Jyotirlinga by filling water from a deep well. Hundreds of pitchers of water are taken out for the consecration. His worship goes on for a long time. Only after that the general public gets the opportunity to worship.

Due to being pressed by Ravana, this Jyotirlinga is buried in the ground and a pit has been formed in its upper end. Still the height of this Shivling idol is about eleven fingers. A fair is held here in the month of Sawan and devotees come from far and wide to Baba Vaidyanath Dham (Deoghar) carrying water from Kanwar. Devotees also come to Vaidyanath Dham to have darshan of Baba to get rid of many diseases. There is such a fame that people get freedom from diseases by continuously performing aarti-darshan of Shri Vaidyanath Jyotirlinga.

According to Koti Rudra Samhita
The story of Shri Vaidyanath Jyotirlinga is written in the Koti Rudra Samhita of Shri Shiv Mahapuran as follows –

The demon king Ravana was not only arrogant, he was also going to reveal his ego soon. Once upon a time he was worshiping Lord Shiva with devotion on Mount Kailasa. Even after worshiping for many days, when Lord Shiva was not pleased with him, then he again started meditating with another method. He prepared a pit by digging the earth in a forest full of dense trees to the south of the Siddhisthal Himalayan Mountains. The Rakshasa Kul Bhushan that Ravana started the havan (sacrifices) by setting fire in the pit. He had also installed Lord Shiva there with him. For penance, he adopted a strict abstinence rule.

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He used to consume Panchagni by sitting in the middle of five fires in summer, then in rainy season he used to sleep on a platform in the open field and in winter (in winter days) he used to meditate standing in neck-deep water. Ravana's penance was going on through these three methods. Lord Maheshwar was not pleased with him even after doing such severe penance. It is said that it is very difficult to pacify the Lord by evil spirits. When Ravana did not get success through hard penance, then Ravana started worshiping Lord Shiva by cutting off each of his head. He used to worship God according to the scriptures and after that worship he used to cut off one of his heads and dedicate it to God. In this way, he cut off his nine heads respectively. When he wanted to cut off his last tenth head, till then Bhaktavatsal Lord Maheshwar became satisfied and pleased with him. Appearing in person, He healed all the heads of Ravana and joined them as before.

God gave the demon king Ravana matchless strength and might as per his wish. After receiving the blessings of Lord Shiva, he bowed down with folded hands and said - ' Deveshwar! Be pleased with me I have come under your shelter and take you to Lanka. You fulfill my wish.' After listening to Ravana's statement in this way, Lord Shankar got confused. To avert the present religious crisis, he reluctantly said - 'Rakshasraj! You take this perfect linga of mine to your capital with devotion, but keep this in mind - if you keep it on the earth on the way, it will become immovable there. Now do as you wish'-

Prasannobhav devesh lankaan ch tvaan nayaamyaham.
Saphalam kuruu me kaamam tvaamaham sharaṇam gat:..
Ityuktashch tadaa ten shambhurvai raavaṇen s:.
Pratyuvaach vichetask: sankaṭam paramam gat:..
Shruuyataan raakshasashreshṭh vacho me saaravattayaa.
Niiyataan svagṛhe me hi sadabhaktyaa lingamuttamam..
Bhuumow lingam yadaa tvam ch sthaapayishyasi yatr vai.
Sthaasyatyatr n sandeho yathechchhasi tathaa kuruu..

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On being told by Lord Shiva, saying 'very good', the demon king Ravana took that Shivling along with him and went towards his capital Lanka. Due to the influence of Lord Shankar's Mayashakti, he had a strong desire to urinate (urinate) while going on the way. Powerful Ravana was unable to stop the flow of urine and sat down to urinate himself holding the Shivling in the hands of a cowherd. After a moment had passed, the cowherd suffered from the weight of the Shivling and placed the linga on the earth. As soon as it was placed on the earth, that precious Shivling became stable there itself.

When the Shivling became stable there with the spirit of public welfare, then Ravana went towards his capital after being disappointed. He reached the capital and told the whole incident of Shivling to his wife Mandodari. The gods and sages like Indra of Devpur consulted among themselves after hearing the news related to gender and reached there. Due to their unwavering devotion to Lord Shiva, they worshiped that linga with great pleasure according to the scriptures. Everyone had a direct darshan of Lord Shankar-

Tasmianllinge sthite tatr sarvalokahitaay vai.
Raavaṇ: svagṛham gatvaa varam praapy mahottamam..
Tachchhutvaa sakalaa devaa: shakraadyaa munayastathaa.
Parasparam samaamantry shivasaktadhiyoऽmalaa:..
Tasmin kaale suraa: sarve haribrahmadayo mune.
Aajagmustatr supriityaa puujaan chakrurvisheshat:..
Pratyaksham tam tadaa dṛshṭavaa pratishṭhaapy ch te suraa:.
Vaidyanaatheti samprochy natvaa – natvaa divam yayu:..

In this way, as a result of Ravana's penance, Shri Vaidyanatheshwar Jyotirlinga emerged, which was established and worshiped by the gods themselves. The person who anoints Lord Shri Vaidyanath with devotion, his physical and mental diseases are destroyed very quickly. That's why a special crowd of patients and visitors is seen in Vaidyanathdham.

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Other Context-1
According to another legend, Pulastya, the son of Brahma (one of the seven sages) had three wives. Kuber was born from the first, Ravana and Kumbhakarna from the second, Vibhishana from the third. Ravana did severe penance to gain strength. Shiva appeared and allowed Ravana to take the Shivling to his city. Also said that if placed on the earth on the way, the linga would be established there itself. Ravana carried the two lingas given by Shiva in 'Kanwari'. On the way, due to small doubts, he caught Kanwari to a cowherd named 'Baiju'. The Shivling became so heavy that it had to be placed there on the earth. They got established there. Ravana could not take him to his city. The linga which was in the front part of Kanwari became famous by the name Chandrabhal and the one in the back part was called Vaidyanath. Shepherd Baiju started worshiping Vaidyanath everyday. One day there was a celebration in his house. He sat down to eat, only then he remembered that he had not worshiped the Shivling. So he went to worship Vaidyanath. Everyone got angry with him. Shiva and Parvati were pleased and gave him a boon according to his wish that he should be engaged in daily worship and on the basis of his name that Shivling was also called 'Baijnath'.

Other Context-2
There are many such stories in Shiva Purana which tell that Shiva is the lord of doctors. It is said that Shiva in his fiery form beheaded his father-in-law Daksha with his trishul. Later, when there was a lot of request, Baba Baidyanath searched in all the three worlds but could not find that head. After this a goat's head was cut off and transplanted on Daksh's trunk. Due to this, the sound of the goat - b.b.b.b. Let's worship Mahadev with the pronunciation of. Devotees please Baba by playing this sound. Legend has it that Lord Shankar was installed by Pandit Ravana after bringing him from Kailash. Because of this it is called Ravanoshwar Baidyanath. The story of the court here is quite unique.

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how to reach
It falls at a distance of about 5 kilometers from Jasidih Railway Station and there is a good arrangement to reach here by road as well.

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