व्रत कथा
प्राचीन काल में एक साहुकार था, जिसके सात बेटे और सात बहुएं थी। इस साहुकार की एक बेटी भी थी जो दीपावली के अवसर पर ससुराल से मायके आई थी, दीपावली पर घर को लीपने के लिए सातों बहुएं मिट्टी लाने जंगल में गई तो ननद भी उनके साथ जंगल की ओर चल पड़ी। साहुकार की बेटी जहां से मिट्टी ले रही थी उसी स्थान पर स्याहु (साही) अपने साथ बेटों से साथ रहती थी। खोदते हुए गलती से साहूकार की बेटी ने खुरपी से स्याहू का एक बच्चा मर गया। स्याहू इस पर क्रोधित होकर बोली मैं तुम्हारी कोख बांधूंगी।
स्याहू की यह बातसुनकर साहूकार की बेटी अपनी सातों भाभीयों से एक एक करके विनती करती हैं कि वह उसके बदले अपनी कोख बंधवा लें। सबसे छोटी भाभी ननद के बदले अपनी कोख बंधवाने के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद छोटी भाभी के जो भी बच्चे थे वह सभी सात दिन बाद मर जाते हैं। सात पुत्रों की इस प्रकार मृत्यु होने के बाद उसने पंडित को बुलवाकर इसका कारण पूछा। पंडित ने सुरही गाय की सेवा करने की सलाह दी।
सुरही सेवा से प्रसन्न होती है और उसे स्याहु के पास ले जाती है। रास्ते में थक जाने पर दोनों आराम करने लगते हैं। अचानक साहुकार की छोटी बहू की नजर एक ओर जाती हैं, वह देखती है कि एक सांप गरूड़ पंखनी के बच्चे को डंसने जा रहा है और वह सांप को मार देती है। इतने में गरूड़ पंखनी वहां आ जाती है और खून बिखरा हुआ देखकर उसे लगता है कि छोटी बहु ने उसके बच्चे के मार दिया है। इस पर वह छोटी बहू को चोंच मारना शुरू कर देती है। छोटी बहू इस पर कहती है कि उसने तो उसके बच्चे की जान बचाई है। गरूड़ पंखनी इस पर खुश होती है और सुरही सहित उन्हें स्याहु के पास पहुंचा देती है।
स्याहु छोटी बहू की सेवा से प्रसन्न होकर उसे सात पुत्र और सात बहुएं होने का अशीर्वाद देती है। स्याहु के आशीर्वाद से छोटी बहु का घर पुत्र और पुत्र की वधुओं से हरा भरा हो जाता है। अहोई अष्टमी का अर्थ एक प्रकार से यह भी होता है “अनहोनी को होनी बनाना” जैसे साहुकार की छोटी बहू ने कर दिखाया था।
पूजा विधि
यह व्रत कार्तिक लगते ही अष्टमी को किया जाता है। जिस वार का दीपावली होती है, अहोई आठें भी उसी वार की पड़ती है। इस व्रत को वे स्त्रियाँ की करती हैं जिनके सन्तान होती है। बच्चों की माँ दिन भर व्रत रखें। सायंकाल दीवार पर अष्ट कोष्ठक की अहोई की पुतली रंग भर कर बनाएँ। उस पुतली के पास सेई (स्याऊ) तथा सेई के बच्चों का चित्र भी बनायें तथा उसका पूजन कर सूर्यास्त के बाद अर्थात् तारे निकलने पर अहोई माता की पूजा करने से पहले पृथ्वी को पवित्र करके चैक पूर कर एक लोटा जल भरकर एक पटरे पर कलश की भाँति रखकर पूजा करें। अहोई माता का पूजन करके माताएँ कहानी सुनें।
पूजा के लिए माताएँ पहले से एक चाँदी का अहोई बनायें जिसे स्याऊ कहते हैं और उसमें चाँदी के दो दाने, जिस प्रकार गले में पहनने के हार में पैंडिल लगा होता है, उसी की भाँति चाँदी की अहोई ढलवा लें और डोरे में चाँदी के दाने डालवा लें। फिर अहोई की रोली, चावल दूध व भात से हलवा तथा रुपये बायना निकला कर रख लें और सात दाने गेहँू के लेकर कहानी सुने। कहानी सुनने के बाद अहोई स्याऊ की माला गले में पहन ले। जो बायना निकालकर रखा था, उसे सासू जी के पांव छुकर आदर पूर्वक उन्हें दे देवें। इसके बाद चन्द्रमा को अध्र्य देकर स्वयं भोजन करे। दीवाली के बाद किसी शुभ दिन अहोई को गले से उतार कर उसका गुड़ से भोग लगाए और जल के छीटे देकर मस्तक झुकाकर रख दें। जितने बेटे है उतनी बार तथ जिन बेटों का विवाह हो गया हो उतनी बार चाँदी के दो-दो दाने अहोई में डालती जाए। ऐसा करने से अहोई माता प्रसन्न हो बच्चों की दीर्घायु करके घर में नित नये मंगल करती रहती हैं। इस दिन पंडितों को पेठा दान करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है।
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